Monday 2 July 2018

लोकतंत्र बनाम भीड़तंत्र


(देश में अराजकता का राज)

आज देश में भीड़तंत्र पनप रहा है, पिछले चार वर्षों में मॉब लिंचिंग की वारदातों में तेजी आयी है। लेकिन स्तब्ध होकर हम जो देख रहे हैं, उसके निर्माण की कुख्यात ऐतिहासिक प्रक्रिया रही है. वैसे तो भारत में पीट पीट कर बेकसूरों को मार डालती भीड़ की ये बर्बरता नयी नहीं है, अगर कुछ नया है तो इसके जद्द में आने वाला वर्ग। आजादी पूर्व और पश्चात, भारत में वंचित, उत्पीड़ित और शोषित वर्ग इस तरह के हिंसा की शिकार होती आयीं हैं। किन्तु अब इस भीड़ से समाज का कोई भी वर्ग बचा नहीं है। आम आदमी की क्या विसात, अब तो देश के विदेश मंत्री तक को ये भीड़ अपने चपेट में लेने से नहीं चूक रही। वंचितों की अनायास भीड़ को सत्ता और ताकत की सुनियोजित भीड़ ने निगला है। किन्तु गहरी चोट से त्रस्त लोकतंत्र को अब तबाही की ओर धकेला जा रहा है।
      लोकतंत्र पर भीड़तंत्र तब भारी पड़ने लगता है जब  "वोटतंत्र" को सर्वोपरि रखा जाने लगता है। मोब लिंचिंग का कारण कभी 'गोमांस' को बनाया जाता है तो कभी कभी चुड़ैल, डायन, गोकशी और बच्चा चोरी को। पिछले दिनों कश्मीर में तो एक पुलिस अधिकारी को बिना वजह ही भीड़ ने पीट-पीटकर मार डाला। विगत वर्षों के 'मोब-लिंचिंग' के घटनाओं को देखा जाये तो उन सभी घटनाओं में एक बात कॉमन है -अफवाहों के आधार पर भीड़ का हिंसक हो जाना। भीड़तंत्र का ये उभार एक धीमी और जहरीली प्रक्रिया है जो इधर और तीखी और उग्र  हुई है। आज देश में भीड़ ही तय कर रही है कि कौन सही है कौन गलत। 'मॉब लिंचिंग' जैसी घटनाओ के लिए हमारी खामोशी और ‘हमें क्या' वाला नजरिया भी जिम्मेदार है। इस प्रकार के हिंसा का एक कारण  न्याय व्यवस्था में पेचीदगियां और न्याय मिलने में होने वाली देरी को बताया जाता है, जो की लोगों का न्याय प्रणाली से उठते विश्वाश को दिखता है। ऐसी घटनाएं किसी भी लोकतान्त्रिक देश के लिए सही संकेत नहीं है। सबसे अजीब बात यह है कि संविधान और कानून के नाम पर शपथ लेने वाली सरकार भी ऐसी क्रूर और वीभत्स हिंसा को अंदर ही अंदर शह देती नज़र आती हैं। सियासी फायदों के लिए नागरिक विवेक का अपहरण किया जा चूका है।  लोगों के जेहन में घृणा और बंटवारे के बीज पड़ चुके हैं। खून की ये फसल क्या किसी को दिखती है? आज अगर कानून से बेखौफ जहांतहां उभर आती भीड़ को काबू में करने के जतन नहीं किये गए तो पतन निश्चित है। बात किसी सरकार के रहने और न रहने की नहीं है, बात सिर्फ देश की छवि और प्रतिष्ठा तक भी सिमित नहीं है, बात मनुष्यता और लोकतंत्र पर मंडराते खतरे की है।

Thursday 21 September 2017

बेरोजगारी और महंगाई; एक समाधान

दोस्तो! महंगाई और बेरोजगारी पर बातें तो सभी करते हैं और एक दूसरे पर दोषारोपण भी खुब होता है, लेकिन दिन पर दिन बढ़ती इस समस्या का हल कोई नहीं सुझाता|
आईये आज हम इस समस्या के कारण और निवारण पर विचार करें|
आज सारी दुनिया में बेरोजगारी और महंगाई अपने पैर फैला रही है और दूसरी तरफ अत्यधिक काम का दवाब लोगों को तनाव ग्रस्त कर रहा है। परिवार संस्था बिखर गयी है और हमारी पारंपरिक विवाह संस्था भी धाराशायी हो रही है।
हमारे युवा साथी इंजिनीयरिंग या मेनेजमेंट की परीक्षा देकर निकलते है और उन्हें कैंपस सेलेक्शन के माध्यम से नौकरी मिल जाती है। नौकरी भी कैसी लाखों की। पिताजी ने हजार से आगे की गिनती नहीं की और बेटा सीधे ही लाखों की बात करने लगा। आकर्षक सैलरी पैकेज के साथ आकर्षक सुविधाएं भी। एसी और फाइव स्टार से नीचे बात ही नहीं।
उनसे फोन से बात करो तो कहेंगे कि अभी समय नहीं, घर आने की बात करो तो छुट्टिया नहीं। सारे ही नाते-रिश्तेदार बिसरा दिए गए। चाहे माँ मृत्यु शय्या पर हो या पिताजी, बेटे-बेटी के पास फुर्सत नहीं।
हाँ दूर बैठकर चिंता जरूर करेंगे और बड़े अस्पताल में जाने की सलाह देकर उनका बिल भी बढ़ाने का पूर्ण प्रयास करेंगे।
मेरे कहने का अर्थ केवल इतना सा है कि आखिर इन सारी समस्याओं का कोई हल भी है क्या?
मेरे पास इस समस्या का एक हल है, आपको मुफ्त में बताए देता हूं; नौकरियों मेंआज जो घाणी के बैल की तरह आपने लोगों को जोत रखा है उसे बन्द करो तो अपने आप बेरोजगारी दूर हो जाएगी। आज प्राइवेट सेक्टर में प्रत्येक व्यक्ति 12 घण्टे की नौकरी कर रहा है। एक व्यक्ति के स्थान पर दो को नौकरी दो और इतने वेतन देकर आप क्यों उसे आसमान पर बिठा रहे हैं और परिवार से दूरियां बढ़ाने में सहयोग कर रहे हैं?
अधिकतम वेतन निर्धारित करो। मेरा एक दोस्त बैंक का मेनेजर है, वह सुबह नौ बजे बैंक जाता है और रात आठ बजे के बाद ही आ पाता है। यह क्या है? कहाँ जाएगा उसका परिवार? आज यदि कीसी कम्पनी में एक लाख व्यक्ति काम कर रहे हैं तो इस नीति से दो लाख कर्मचारी हो जाएंगे और वेतन में भी वृद्धि नहीं होगी। क्या आवश्यकता है करोड़ों के पेकेज देने की? इन पेकेजों ने ही मंहगाई को बढ़ाया है। जब एक नवयुवा को पचास हजार रूपया महिना वेतन दोगे तो वह सीधा मॉल में ही जाकर रुकता है और बाजार में जो सामान 100 रू में मिलती है उसके वह 1500 रू. देता है। बेचारे माता-पिता तो रातों-रात बेचारे ही हो जाते हैं क्योंकि उनका लाड़ला लाखों जो कमा रहा है। इसलिए बेरोजगारी के साथ समस्त पारिवारिक और मंहगाई की समस्या से निजात पाने का एक ही तरीका है कि इन बड़ी कम्पनियों को अपनी नीति बदलनी होगी। समाज को इन पर दवाब बनाना होगा नहीं तो प्रत्येक युवा तनाव का शिकार हो जाएगा।

Friday 11 August 2017

दरकते रिश्ते, टुटता विश्वास

आजकल पारिवारिक मूल्यों के कमजोर होने का रोना हर तरफ सुनाई दे रहा है|
विकास की वर्तमान अवधारणा अधिक से अधिक उपभोग या व्यय पर जोर देती है। इससे उपभोक्तावाद पनपा है। जहां चीजों को इतनी अहमियत मिले और उपभोग तथा खपत इंसान की कामयाबी के पर्याय हो जाएं, वहां मानवीय मूल्यों की कौन परवाह करेगा?
उपभोक्तावाद का सबसे ज्यादा असर इंसानी रिश्तों पर पड़ा है. इन्हीं बदले हुए हालात का सबसे बड़ा दंश झेल रहे हैं हमारे बुजुर्ग| उन्हें आज के इस आधुनिक समाज में कई तरह की परेशानियों को झेलना पड़ रहा है|
अब हाल हीं के इन दो खबरों पर जरा नजर डालिए:
1- 12 हजार करोड़ रुपये की मालियत वाले रेमंड ग्रुप के मालिक विजयपत सिंघानिया पैदल हो गए। बेटे ने पैसे-पैसे के लिए मोहताज कर दिया।
2- करोड़ों रुपये के फ्लैट्स की मालकिन आशा साहनी का मुंबई के उनके फ्लैट में कंकाल मिला।

विजयपत सिंघानिया और आशा साहनी, दोनों ही अपने बेटों को अपनी दुनिया समझते थे। पढ़ा-लिखाकर योग्य बनाकर उन्हें अपने से ज्यादा कामयाबी की बुलंदी पर देखना चाहते थे। हर मां, हर पिता की यही इच्छा होती है। विजयपत सिंघानिया ने यही सपना देखा होगा कि उनका बेटा उनकी विरासत संभाले, उनके कारोबार को और भी ऊंचाइयों पर ले जाए। आशा साहनी और विजयपत सिंघानिया दोनों की इच्छा पूरी हो गई। आशा का बेटा विदेश में आलीशान जिंदगी जीने लगा, सिंघानिया के बेटे गौतम ने उनका कारोबार संभाल लिया, तो फिर कहां चूक गए थे दोनों। क्यों आशा साहनी कंकाल बन गईं, क्यों विजयपत सिंघानिया 78 साल की उम्र में सड़क पर आ गए। मुकेश अंबानी के राजमहल से ऊंचा जेके हाउस बनवाया था, लेकिन अब किराए के फ्लैट में रहने पर मजबूर हैं। तो क्या दोषी सिर्फ उनके बच्चे हैं..?
अब जरा जिंदगी के क्रम पर नजर डालें। बचपन में ढेर सारे नाते रिश्तेदार, ढेर सारे दोस्त, ढेर सारे खेल, खिलौने..। थोड़े बड़े हुए तो पाबंदियां शुरू। जैसे जैसे पढ़ाई आगे बढ़ी, कामयाबी का फितूर, आंखों में ढेर सारे सपने। कामयाबी मिली, सपने पूरे हुए, आलीशान जिंदगी मिली, फिर अपना घर, अपना निजी परिवार। हम दो, हमारा एक, किसी और की एंट्री बैन। दोस्त-नाते रिश्तेदार छूटे। यही तो है शहरी जिंदगी। दो पड़ोसी बरसों से साथ रहते हैं, लेकिन नाम नहीं जानते हैं एक-दूसरे का। क्यों जानें, क्या मतलब है। हम क्यों पूछें..। फिर एक तरह के डायलॉग-हम लोग तो बच्चों के लिए जी रहे हैं।
मेरी नजर में ये दुनिया का सबसे घातक डायलॉग है-'हम तो अपने बच्चों के लिए जी रहे हैं, बस सब सही रास्ते पर लग जाएं।' अगर ये सही है तो फिर बच्चों के कामयाब होने के बाद आपके जीने की जरूरत क्यों है। यही तो चाहते थे कि बच्चे कामयाब हो जाएं। कहीं ये हिडेन एजेंडा तो नहीं था कि बच्चे कामयाब होंगे तो उनके साथ बुढ़ापे में हम लोग मौज मारेंगे..? अगर नहीं तो फिर आशा साहनी और विजयपत सिंघानिया को शिकायत कैसी। दोनों के बच्चे कामयाब हैं, दोनों अपने बच्चों के लिए जिए, तो फिर अब उनका काम खत्म हो गया, जीने की जरूरत क्या है।
आपको मेरी बात बुरी लग सकती है, लेकिन ये जिंदगी अनमोल है, सबसे पहले अपने लिए जीना सीखिए। जंगल में हिरन से लेकर भेड़िए तक झुंड बना लेते हैं, लेकिन इंसान क्यों अकेला रहना चाहता है। गरीबी से ज्यादा अकेलापन तो अमीरी देती है। क्यों जवानी के दोस्त बढ़ती उम्र के साथ छूटते जाते हैं। नाते रिश्तेदार सिमटते जाते हैं..। करोड़ों के फ्लैट की मालकिन आशा साहनी के साथ उनकी ननद, भौजाई, जेठ, जेठानी के बच्चे पढ़ सकते थे..? क्यों खुद को अपने बेटे तक सीमित कर लिया। सही उम्र में क्यों नहीं सोचा कि बेटा अगर नालायक निकल गया तो कैसे जिएंगी। जब दम रहेगा, दौलत रहेगी, तब सामाजिक सरोकार टूटे रहेंगे, ऐसे में उम्र थकने पर तो अकेलापन ही हासिल होगा।
इस दुनिया का सबसे बड़ा भय है अकेलापन। व्हाट्सएप, फेसबुक के सहारे जिंदगी नहीं कटने वाली। जीना है तो घर से निकलना होगा, रिश्ते बनाने होंगे। दोस्ती गांठनी होगी। पड़ोसियों से बातचीत करनी होगी। आज के फ्लैट कल्चर वाले महानगरीय जीवन में सबसे बड़ी चुनौती तो ये है कि खुदा न खासता आपकी मौत हो गई तो क्या कंधा देने वाले चार लोगों का इंतजाम आपने कर रखा है..? जिन पड़ोसियों के लिए नो एंट्री का बोर्ड लगा रखा था, जिन्हें कभी आपने घर नहीं बुलाया, वो भला आपको घाट तक पहुंचाने क्यों जाएंगे..?
याद कीजिए दो फिल्मों को। एक अवतार, दूसरी बागबां। अवतार फिल्म में नायक अवतार (राजेश खन्ना) बेटों से बेदखल होकर अगर जिंदगी में दोबारा उठ खड़ा हुआ तो उसके पीछे दो वजहें थीं। एक तो अवतार के दोस्त थे, दूसरे एक वफादार नौकर, जिसे अवतार ने अपने बेटों की तरह पाला था। वक्त पड़ने पर यही लोग काम आए। बागबां के राज मल्होत्रा (अमिताभ बच्चन) बेटों से बेइज्जत हुए, लेकिन दूसरी पारी में बेटों से बड़ी कामयाबी कैसे हासिल की, क्योंकि उन्होंने एक अनाथ बच्चे (सलमान खान) को अपने बेटे की तरह पाला था, उन्हें मोटा भाई कहने वाला दोस्त (परेश रावल) था, नए दौर में नई पीढ़ी से जुड़े रहने की कूव्वत थी।
विजयपत सिंघानिया के मरने के बाद सब कुछ तो वैसे भी गौतम सिंघानिया का ही होने वाला था, तो फिर क्यों जीते जी सब कुछ बेटे को सौंप दिया..? क्यों संतान की मुहब्बत में ये भूल गए कि इंसान की फितरत किसी भी वक्त बदल सकती है। जो गलती विजयपत सिंघानिया ने की, आशा साहनी ने की, वो आप मत कीजिए। रिश्तों और दोस्ती की बागबानी को सींचते रहिए, ये जिंदगी आपकी है, बच्चों की बजाय पहले खुद के लिए जिंदा रहिए। आप जिंदा रहेंगे, बच्चे जिंदा रहेंगे। अपेक्षा किसी से भी मत कीजिए, क्योंकि अपेक्षाएं ही दुख का कारण हैं।

Saturday 22 July 2017

इतना चिल्लाहट क्यों है भाई!


दोस्तों! बहुत दिनों से मैं सत्ता और समाज के संबंध में लिखने से गुरेज़ करता रहा, किन्तु आज खुद को रोक नहीं सका|
आज देशभक्ति का अर्थ है चीखना और चिल्लाना !आपको थोड़ा अजीब लग सकता है यह, किन्तु हम लोग इसे किसी ना किसी रुप में स्वीकार चुके हैं|
भारत में संसद, टी.वी. न्यूज स्टूडियो में जहां चिल्लाहट का राज है वहीं सड़कों पर लम्पटता का बोलबाला है|
कभी- कभी तो मुझे ऐसा भी लगता है कि वर्तमान में चीखना ही वाक्कला का मुख्य रूप बन गया है। क्यों की हमारे नेता को संसद में और न्यूज चैनलों पर एंकरों को इतने जोर से चीखता देख यह समझना मुश्किल हो जाता है कि हमारे समाज का यह वर्ग चीख क्यों रहे हैं? इतने आधुनिक और संवेदनशील उपकरणों के होते हुए भला इन्हें चीखने की क्या जरूरत है?
एक तरफ जहां न्यूज चैनलों द्वारा आयोजित/प्रायोजित बहसों में एंकर, भागी, प्रतिभागी तथा विद्वान, पत्रकार सब चीख रहे होते हैं। वहीं देश की संसद में भी पक्ष, विपक्ष, अध्यक्ष सभी चीख रहे होते हैं।
हम सभी जानते हैं कि चिल्लाहट किसका गुण है, किसका स्वभाव और किसकी आदत है। हमारे समझ से तो वही चिल्लाता है जो गलत होता है। वही चिल्लाता है जो आदेश देता है। वही चिल्लाता है जिसके पास किसी किस्म की सत्ता होती है। हम रोज देखते हैं कि फैक्टरी में मैनेजर-सुपरवाइजर, खेत में मजदूर-धनी किसान आदि अक्सर चिल्लाते दिख जाते हैं, और इन सबकी चिल्लाहट तब और बढ़ जाती है जब इनके गलत होेने की स्पष्ट समझ सब ओर होती है; इनकी चिल्लाहट तब और बढ़ जाती है जब इन्हें कोई छोटी-बड़ी चुनौती मिलने लगती है।
देश मे शासक और पत्रकार (एंकर) तो चीख रहे हैं किन्तु शासित खामोश है| यहां मजदूर, किसान पीडि़त, शोषित सभी खामोश हैं, परन्तु कब तक? और कहां तक?
कही ये खामोशी तुफानी सन्नाटा तो नही!

Sunday 24 November 2013

समाज और राष्ट्र के व्यापक हित में मतदान करें

प्रदेश में राजनीतिक दल सार्वजनिक हित जैसे सड़क बनवाने, पुल बनवाने, कारखाने लगाने, महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, अशिक्षा, गरीबी, आतंकवाद, नक्सलवाद, जातिवाद, रोजगार सृजन आदि आम जनता के ज्वलंत समस्याओं के समाधान करने के बजाय उन्हें व्यक्तिगत लाभ देने के वायदे जैसे कि कर्ज माफी, मुफ्त बिजली, मुफ्त सिलाई मशीन, मुफ्त रंगीन टेलीविजन, मुफ्त लैपटॉप, मुफ्त टेबलेट, मुफ्त स्मार्ट फ़ोन, मुफ्त रेडियो, मुफ्त साइकिल बांटने जैसी योजनाओं के बदौलत वोट बटोरने में लगी हुई है।
राजनितिक दल योजनाओं के नतीजे भले ही कितने भी क्रांतिकारी बताये जा रहे हों, लेकिन मूल रूप में ये सब "वोट के बदले नोट" देने जैसा ही है।
मध्यप्रदेश के सभी सम्मानीय मतदाताओं से अनुरोध है कि क्यिप्य २५ दिसंबर को व्यक्तिगत लाभ के बजाय समाज और राष्ट्र के व्यापक हित में मतदान करें।

Tuesday 6 August 2013

भारत में राजनीती उद्द्योग का विकाश

           
भारत में राजनीती एक उद्योग (Industry) का रूप ले चुकी है, जिसका उद्देश्य धनोपार्जन मात्र बन गया है। वर्तमान में सभी राजनितिक पार्टियाँ अपनी कम्पनी अर्थात पार्टी को अलग ब्रांड नेम से चला रहा है।
कोई अपने पार्टी चलने के लिए समाजवाद को अपना ब्रांड नेम बनता है और फिर परिवारवाद चला रहा है तो कोई दलित उत्थान के ब्रांड नेम के साथ दलितों के कल्याण के पैसे से स्मारक बनवाता है।
           इतना ही नहीं कुछ राजनितिक पार्टियाँ तो मन्दिर – मस्जिद को हिन् अपना ब्रांड नेम बना चुकीं है और इसी ब्रांड नेम के सहारे अपनी राजनीती की दुकान चला रहें है।
इन सबके बिच कोई बंश वाद के सहारे सत्तासीन है, तो कोई टोपी पहन कर अपनेआप को धर्मनिरपेक्षता का श्वघोसित ठेकेदार साबित करने पर तुला है और डर की राजनीती से अपना "राजनितिक उद्योग" चलने में व्यस्त है।
कोई अल्पसंख्यकों के नाम पर तो कोई बहुसख्यक वर्ग के हितो को बाट कर अपना खजाना भरने में व्यस्त है।
अगर देखा जाये तो इनसब के लिए दोषी कही न कही इनके झूठे नारों और प्रलोभनों में आकर इनका समर्थन करने वाले लोग हीं है, जो जाती, धर्म, भाषा और झूठा अपनापन के आस मे अपने और आने बाली पीढयो के साथ-साथ समाज और देश को भी गर्त ढकेल रहें है।

Saturday 3 August 2013

लोकतंत्र या "भ्रष्ट्रतंत्र"?

उत्तरप्रदेश के गौतमबुद्धनगर जिला में जिस प्रकार से सिर्फ सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ने मात्र की आशंका से एक शांत और अपने काम में लगी रहने वाली महिला IAS अधिकारी दुर्गा शक्ति को जहाँ मात्र  41 मिनट में सस्पेंशन लेटर थमा दिया जाता है वही पिछले साल मथुरा के कोसीकलां में हिंसा हुई, उसमें किसी को निलंबित नहीं किया गया। प्रतापगढ़ में एक समुदाय के मकान जला दिए गए, लेकिन डीएम के खिलाफ कोई कार्रवाई तक नहीं हुई।
            इसी तरह बरेली में दो-दो दंगे हुए, लखनऊ, इलाहाबाद, मेरठ, मुजफ्फरनगर भी साम्प्रदायिक दंगों का शिकार हुआ लेकिन यहां किसी आईएएस अफसर पर कोई भी कार्यवायी  नहीं की गई।
           फैजाबाद दंगों में भी किसी आईएएस के खिलाफ कोई कार्यवायी नहीं की गई। यही नहीं पशु तस्‍करी मामले में पिछले साल जब् गोंडा के एसपी ने एक स्टिंग ऑपरेशन कर लिया और उसमें एक राज्यामंत्री का नाम सामने आया तो यूपी सरकार ने बजाए उस राज्य मंत्री पर कार्यवायी करने के उलटे एसपी को ही पद से हटा दिया
          उत्तरप्रदेश के  403 सदस्यों वाले सदन में 47 फीसदी विधायक 189 विधायक दागी हैं। जबकि 2007 में 140 दागी विधायक सदन में थे। इस दफा चुने गए विधायकों में से 98 के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले हैं। सपा के 224 विधायकों में से 111 दागी हैं।
जून 2012 में विधानसभा सत्र के दौरान मुख्यमंत्री ने स्वीकार किया था कि 1 मार्च से 15 अप्रैल के बीच प्रदेश में 669 हत्याएं, 35 डकैतियां, 263 बलात्कार 429 लूट और वाहन चोरी के 3256 मुक़दमें प्रदेश के विभिन्न थानों में दर्ज किये गये थे।
क्या यही है लोकतंत्र?